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Best Motivational Stories in Hindi – प्रेरणादायक कहानियाँ

Table of Contents

Motivational Stories in Hindi

इस लेख मे हम 2 Motivational Stories In Hindi आपके साथ साझा करने जा रहे हैं। आशा करते हैं आपको इन दो कहानियों से काफी कुछ सीखने को मिलेगी।

Motivational Stories In Hindi: सफलता की एक अनौखी कहानी

किसी ने क्या खूब कहा है कि ‘खुदी को कर बुलंद इतना कि खुदा भी आकर पूछे बता तेरी रजा क्या है ‘?? हमारी आज की कहानी ऐसे इंसान की है जिसने न सिर्फ सफलता की उत्तम श्रेणी को छुवा बल्की ये साबित भी किया कि जो आदमी सोच सकता है वो पा सकता है।

ये सोचने और पाने के क्रम में आपकी अथक मेहनत आती है।  घर से गरीब और बेहद कठिन परिस्थितियों में जीने वाले प्रदीप ने मात्र 22 साल की उम्र में भारत की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा आईएएस को अपने मेहनत के दम पर पास की। ये कहानी शुरू होती है आज से ठीक 3 साल पहले …..

दिल्ली सपनों का शहर एक ऐसा शहर जो हर छोटे-बड़े और मध्यम लोगो को आश्रय देता है। यह कहा जाता है कि जो दिल्ली में आकर बस गया दिल्ली उसी की हो गई।

इसी ताने-बाने के साथ मात्र 20 साल का नौजवान 2017 में इंदौर से दिल्ली आया। आंखों में सुनहरे सपने और कुछ पाने की जिजीविषा थी उसके मन में। 

दिल्ली का मुखर्जी नगर पुरे भारत में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए विश्व प्रसिद्ध है ।लाखों परीक्षार्थी हर साल यहाँ विभिन सरकारी नौकरियों की तैयारी के लिए आते है।यही वजह है कि यहां गली गली में कोचिंग इंस्टिट्यूट और संस्थान पसरे हुवे है।

ऐसे में एक विद्यार्थी के लिए बेहद मुश्किल है कि वो किस संस्थान को अपनी तैयारी का जरिया बनाये।

आधी जंग यही होती है की cactus ( कोचिंग संस्थान जो फैले हुए है ) की भीड़ में कैसे संस्थान का चयन किया जाए। संस्थान का चयन कर लिया तो रहने की व्यवस्था, फिर साथियों का चयन।

ये सभी अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा  करते है किसी की सफलता में। घना बसा मुखर्जी नगर किसी भी नए विद्यार्थी के लिए किसी जंगल से कम नही। 

सबकुछ के बाद शुरू होता है जितने की दौड़। विभिन क्षेत्रो से आये हुवे कोमल और कपोल मस्तिष्क अपनी मेहनत और किस्मत आजमाते है। एक ऐसी भीड़ जो सपने कम दिखाती, है डराती ज्यादा हैl ऐसी ही भीड़ का हिस्सा बन गया था प्रदीप।

वो पहली दफा डरा और सहमा था। कैसे रहेगा , कैसी पढ़ाई होगी और सबसे जरूरी पैसे कहाँ से आएंगे।

सवाल हजार थे जवाब एक था कि खाली हाथ नही जाना है। मुखर्जी नगर की एक खासियत है यहां पकोड़े वाले से लेकर समोशे तक , फल वाले से लेकर जूस की दुकान वाले तक को भारत के संविधान (लक्ष्मीकांत ) और विपिनचन्द्र की “मॉडर्न इंडिया” पर बात करते सुना जा सकता है। हर कोई अपनी स्ट्रेटेजी शेयर करता है।

क्योंकि ये वही लोग होते है जो कभी न कभी तैयारी का हिस्सा होते है। लेकिन ये बात जरूर है अगर आप भूखे है, और भारत का अफसर बनने का सपना पाले बैठे है, तो आपको यहाँ परीक्षा से पहले लोगो के बीच अफसर बन जायेंगे चाय और पकोड़े आपकी तैयारी मात्र से मिल जाते है।

ज्यादा विस्तार से बात करेंगे तो आपको ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो तैयरी करने आए थे परन्तु अब वह होटल वाला, चायवाला और टयूशन टीचर बन कर जीवन यापन कर रहे है।

ये सारी चीज़ें प्रदीप को भी डराती थी। वो भी इनसे दो चार हुवे बिना न रह पाया। लाजमी है लाल बत्ती से चाय की केतली का तक सफर किसी के अन्दर भी कंपकंपी  पैदा कर सकता है। प्रदीप एक मामूली किसान का बेटा था।

अपनी गरीबी और खस्ताहाल व्यवस्था की वजह से उसके पिताजी 1992 में  गृहराज्य बिहार से मध्यप्रदेश आये थे।

बड़ी मसक्कत से उन्हें पेट्रोल पंप पर सर्विस मैन की नौकरी मिली थी। उनकी सैलेरी से बामुश्किल घर चलता था। 12-12 घंटे कड़ी धूप और कड़ाके की ठंड में खड़े रहना और घंटो खड़े रहना ,पिछले 20 साल से यही चल रहा था। उनकी आखिरी उम्मीद प्रदीप था। 

प्रदीप की पढ़ने और लिखने में विशेष रुचि थी। 10वी और 12वी 80 प्रतिशत से ज्यादा नम्बरों से पास करने के बाद प्रदीप ने बी. कॉम की डिग्री ली। बड़े भाई ने सिविल सेवा की तैयारी के लिए उत्साहित किया। 

बड़े भाई और पिताजी चाहते थे कि प्रदीप उस गरीबी की चक्की में न पिसे जिसमे वो लोग पीस कर बड़े हुए है। उन्होंने प्रदीप को हर तरीके का प्रोत्साहन दिया।

एक वक्त ऐसा आया जब प्रदीप के की कोचिंग के पैसे नही हो पा रहे थे। पिताजी को गाँव की पुस्तैनी जमीन बेचनी पड़ी। इंदौर का  घर गिरवी रखना पड़ा। उन्होंने काम के घण्टे बढ़वा लिए ताकि ज्यादा पैसे आ सके और प्रदीप सुकून से पढ़ पाए। प्रदीप जानता था कि उसके पास लौटने का रास्ता नही है।

अगर वो नाकाम हुवा तो पुरा परिवार सड़क पर आ जायेगा क्योंकि न मकान बचेगा और न इज्जत। उसने न भूख की परवाह की और न नींद की। 12-12 घंटे पढ़ा ,कभी कभी पुरी रात यू ही किताबो के साथ गुजर जाया करती थी। उसने किसी चीज़ की परवाह नही की। 

पुस्तैनी जमीन बिकने का  दर्द और लोकलज्जा उसके दिलो दिमाग पर हावी थी। वो जानता था कि अगर वो सफल न हुआ तो गाँव, नगर के लोग कोस-कोस के उसे जीने नही देंगे। पिताजी का धुप में जलता शरीर और माँ के आंसू ने उसे कभी चैन नही लेने दिया

आखिर वो दिन आ गया। अप्रैल 2019 के दिन कंप्यूटर की स्क्रीन पर टकटकी लगाए प्रदीप अपने किस्मत के फैसले का इंतज़ार कर रहा था। कई दिनों से वो सोया नही था। जैसे ही स्क्रीन पर प्रदीप सिंह ने 93 रैंक देखा। आँसुवो से उसकी आंखें डबडबा गई, गला रुँध गया।

जो तपश्या पिताजी ने की थी उसको प्रदीप ने सही साबित कर दिया। बधाइयों का तांता लग गया। अथाह गरीबी और खस्ताहाल जमीनी हकीकत, मामूली पेट्रोल पंप पर सर्विस मैन की नौकरी करने वाले  के लड़के ने पुरे भारत में 93वी रैंक हासिल की थी। ये अपने आप में सबकुछ था जो वो किसी को दिखा नही सकता था।

अपनी सफलता की कुंजी को अंकित करते हुवे बकौल प्रदीप सिंह’ मुसीबते इसलिए आती है ताकि वो इंसान को उसकी क्षमता से परीचीत करा सके। इसलिए धैर्य रखकर परिश्रम करते रहो एक दिन जीत अवश्य मिलेगी।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था – ‘ब्रह्मांड की असीम शक्तियां आपके अंदर ही है’। आप जो सोच सकते है वो कर सकते है। प्रदीप ने इस मुहावरे को साबित किया और करोड़ो लोगो के लिए मिशाल बना।

आज भारत के हजारों प्रदीप सिंह आँखों मे सपना लिए दिल्ली जाते है, पर सफलता उसी को मिलती है जिसमें कुछ कर गुजरने की क्षमता होती है। वो कहते है ना हारा वही जो लड़ा नही………….

Motivational Story in Hindi – माया-एक सुनहरे पंखो की उड़ान

एक कहानी कितनी लम्बी हो सकती है? इतनी की वो दर्शको को बाँध के रखे या इतनी जो लोगो को वो दे जिसकी उन्हें जरुरत है, सच कहु तो इनमे से कोई नही, एक कहानी उतनी ही होनी चाहिए जितने में किसी की छवि निकलकर सामने चली आये।

मैं रेत पर पाँव के निशाँ बनाने में यकीन नही रखता, मैं पानी के ऊपर भी चलने में यकीन नही रखता, मैं यकीन रखता हु उन पाँव के छालो में जिनसे किसी ने अपनी किस्मत लिखी है, ऐसी किस्मत जिसे ठोकर भी नही ठुकरा सकी।

हॉस्पिटल के मेज पर अपनी आँखों का चस्मा साफ़ करते हुवे वो धुंधली पड़ चुकी यादो में खोई हुई थी। उसे अच्छी तरह याद है जब पापा ने उसे पहली बार गले लगाया था और कहा था की जो तुम करना चाहो करो। वैसे भी भारत के पुरुषवादी समाज में ये शब्द लडकियों के लिए किसी ब्रिटिश गुलामी से आजादी जैसी फीलिंग देने वाले होते है।

मध्यम दर्जे का जीवन और लडकियों के सपने, मकड़ी के जाले की तरह होते है, रोज़ बुनते है और रोज़ टूटते है। पढने में औसत दर्जे की माया किसी तरह से 12वी पास कर गई। घर में दो बहनों और भाइयो में वो बीच की थी। बड़ा भाई भी कोई खास पढ़ा लिखा नही था, पापा के खिलौने की दुकान थी।

माताजी घर संभालती थी। इतना ही था उसका छोटा सा संसार। घर में किसी चीज़ की कमी तो नही थी, परन्तु संघर्ष बहुत था। वो संघर्ष जो  महिलाओं के प्रति इस हिंसक और कुंठित समाज को नही दिखता। ‘माया’ चेहरे पर हंसी लिए और सबको हमेशा ख़ुशी देनी वाली माया।

घर की सबसे जिम्मेदार और संस्कारी बिटिया। पापा की लाडली। पापा उस पर सबसे ज्यादा यकीन करते थे। उन्हें यकीन था की एक दिन उनकी बिटियाँ उनका सिर गर्व से ऊँचा करेगी। बड़े भाई को दारु, जुवे,और अयास्सी की लत थी।

माया का घर गुरुग्राम (पूर्व में गुड़गांव) के रेलवे स्टेशन के नजदीक था। रोज़ सुबह शाम आती जाती रेलगाड़ियां और उनके कान चिरते आवाज़ों की आदि हो गई  थी वो। पर एक ख़ामोशी थी जिसमे  वो हमेशा खुद को पाती थी। किसी तरह 12वी के बाद  पापा से जिद करके उसने जैसे तैसे कॉलेज में एडमिशन लिया।

उसका भाई बिल्कुल नही चाहता था कि वो आगे पढ़े। पिताजी घर के मालिक थे, उन्हें यकीन था कि उनकी बेटी कोई गलत काम नही कर सकती। यही शर्त रखी उन्होंने की कॉलेज से घर और घर स कॉलेज के सिवा उसके लिए कोई दूसरा रास्ता नही होगा।

वो पढ़ना चाहती थी इसलिए उसे ये शर्त बहुत छोटी लगी। पढ़ के उसे कोई अफसर नही बनाना था बल्कि एक छोटी नौकरी करके वो पिता के कंधो से जिम्मेदारी का बोझ हल्का करना चाहती थी।

छोटा कद गोरा रंग और अंदर से चंचल किन्तु शांत माया। मेरी पहली मुलाकात माया कॉलेज में हुई। जब पहली बार उसको देखा तो ऐसा लगा ‘जैसे बरसात की पहली बूंद जमी पर पड़ रही है, एकदम सुनहरी बूंद।

उसे जमी पर गिरने से पहले उसे हथेली पर रोकने को आतुर था मैं। किसी भी खूबसूरत चीज़ का सरंक्षण ही उससे प्यार है।

प्यार वो नही जो अपने और हमने जाना है। प्यार वो जो शब्दों में पिरोया नही जा सकता। खैर  भागते कदमो से मैं अपनी पहचान नही बढ़ाना चाहता था इसलिए मैंने रुक कर कहा, ‘हाय’ उसका जवाब था, हेल्लो। मेरा नाम साहिल है और आपका नाम? उसे थोड़ी हैरानी हुई।

आप पहले दिन ही नाम पूछ रहे है , जान सकती हूं क्यों ? बड़ी बेबाकी से उसने अपने दुपटटे को ठीक करते हुवे कहा? इस क्यु की कटुता से मैं निराश हो गया। सोचा लड़की ने शायद दिल फेंक आशिक़ समझ लिया। दो चार दिन ऐसे ही गुजरे।

न तो मुझमे उतनी हिम्मत थी कि मैं दुबारा उससे कुछ कह पाता और न ही इतना सुलझा था कि उसपर ध्यान दे पाता। 

कॉलज का 8वा दिन था। राजनीतिक विज्ञान की प्रोफेसर सबसे इंट्रो करवा रही थी। यही वो पल था जो थोड़ा बहुत मुझे उसके बारे में मालूम चला। बस 2 मिनट के इंट्रो में उसने खुद को खोल कर रख दिया। इतनी सरलता से परिचय दिया कि मैं देखता रहा गया। अंतर्मन को पढ़ना बेहद कठिन कार्य  होता है।

मैं बिल्कुल अपरिपक्व था इस विषय में। इसलिए मुझे सबकुछ सुलझा हुआ लगा। पर सब कुछ ऐसा नही था जो उसने बताया। घर की सिकुडी हुई आर्थिक हालात, भाई का बार बार उसे ताने मारना और अपनी कोरी कल्पनाओ की उमंगको  माया बड़ी चालाकी से उस 2 मिनट के परिचय में छुपा गई। 

खैर वक़्त आगे बढ़ा, एक दोपहर ब्रेक टाइम में सभी अपना अपना डब्बा (लंच बॉक्स) खा रहे थे। मैं चार दिन पुराने  मित्र अनुपम के साथ खाना शेयर कर रहा था। रोटियां कम थी और खाने वाले दो।

अनुपम बोल पड़ा यार 2 रोटी मिल जाती तो अच्छा होता, मैंने हां में सहमति जताई। अगली सीट पर अपनी सखी के साथ बैठी माया अंदर ही अंदर अनुपम की बात सुनकर मुस्कुरा रही थी।

किसी देसी लौंडे के लिए एक लड़की की मुस्कान बिना मेहनत के करोड़ो की लॉटरी लगने के समान होती है। उसने बिना कुछ कहे अपने डब्बे की दो रोटियां हमारे लंच बॉक्स में डाल दिया। उस पल कुछ समझ नही आया की उसका कैसे  सुक्रिया अदा करू। इतनी जल्दी सबकुछ हुवा की मैं कुछ समझ नही पाया। 

ये हमारी मित्रता की पहली शुरुवात थी। मैंने आभार भरी नजरों से उसकी तरफ देखा, उसने मुस्कुरा कर नज़रे झुका ली। बातों का सिलसिला शुरू हुवा। हम अच्छे दोस्त बन गए। या यूं कहा जाए हम 4 लोगो की एक गैंग बन गई। गैंग जो रोटी से लेकर आंसू तक बांटते थे। 

पहला साल हँसी खुशी गुजर गया। मेरे दर्शन दुर्लभ थे कॉलेज में, बिल्कुल ठीक बरसाती मेंढक की तरह। बस फ़ोन पर माया और मेरी बात होती थी। एक अनकहा और अनसुलझा दोस्ती का रिश्ता था उससे मेरा।

कॉलेज के दूसरे साल में उसने एक छोटी सी जॉब पकड़ ली। वो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना चाहती थी।

घर के आर्थिक हालात उस तरीके के नही थे कि वो बिना जॉब के पढ़ पाती। सुबह कॉलेज, दोपहर में ब्रेक के बाद जॉब और फिर घर के काम काज। अपनी छोटी बहन के स्कूल की फीस, माँ के दवाओं का खर्चा, भाई की रोज़ रोज़ की धमकियों के बावजूद उसके दारू की व्यवस्था और फिर आंसू छुपा के पापा के आंसू पोछना। ये उसकी दैनिक अवस्था थी।

जिस उम्र में लड़के- लड़कियां डिस्को, पब और पार्टीज एन्जॉय करते है, उस उम्र में वो अपने परिवार का भरण पोषण कर  रही थी। मुझे उन बेशर्म लोगो पर तरस आता था, जो बेटा न होने का गम रोते रहते है। उन्हें लगता है कि बेटियां बोझ है, बेटे बुढ़ापे का सहारा है, ऐसो के मुंह पे तमाचा थी माया।

भाई बेशर्मो की तरह दारू, गांजे और शराब में मस्त रहता, छोटी बहन अपने ही साजो-सिंगार में मस्त रहती और माँ बेटे के वियोग में। बस एक बाप-बेटी का रिश्ता ही था उस छत के नीचे जो अथाह दुख के समुंदर में भी जिंदा था।

नौकरी करते हुवे  4 साल हो गए थे, एक दिन उसके पाप की तबियत खराब हो गई और वो बिस्तर पर आ गए। घर का एक कमाऊ आदमी जब बिस्तर पर आ जाये तो दुःखो का पहाड़ टूट पड़ता है।

वो जिससे सबसे ज्यादा स्नेहित थी वो अब बोलने में असमर्थ थे, बस सुन सकते थे। बड़ी बेटी होने के नाते न तो वो उनसे अपना दर्द कह पाती थी और न उनके सामने रो सकती थी।

मैंने इतने करीब से उसे कभी जानने की कोशिश नही की कि वो मुझे अपने मन की पीड़ा से अवगत करा पाए। वैसे भी किसी स्त्री की पीड़ा को पढ़ पाना इतना आशान नही होता।

पर इतना मालुम था उसे एक ऐसे कंधे की जरूरत थी, जिसपर सिर रखकर वो अपनी चंचलता से परे अपने आंसू गिराकर अपना मन हल्का कर पाए।

वेद पढने से कही ज्यादा मुश्किल है वेदना पढ़ना। मैं असफल था। कमर में दुपट्टा बांधकर पसीने से लथपथ और भूखे प्यासे उसने अपने पापा को ठीक करने के लिए न जाने क्या कुछ किया। कभी राजस्थान, कभी दिल्ली कभी हरियाणा तो कभी यूपी। मैं दूर से ही सब देखता रहा। आश्वसन के सिवा मैं उसे कुछ नही दे पाया।

जितना स्नेह उसने मुझ पर लुटाया शायद कोई दूसरी स्त्री किसी पराये मर्द पर लूटा पाए। 2-2 दिन भूखे प्यासे और बदहवास होकर उसने पापा के इलाज के लिए हजार चक्कर मारे। वो  आम रोग होता तो ठीक हो जाता, वो तो कैंसर था। सबको मालूम था की अंत क्या है। हुवा भी वही 6 महीने के अंदर पिता का स्वर्गवास हो गया।

उसके जिंदगी के नायक ने हथियार डाल दिये। वो पहली दफा था जो वो फुट फुट कर फ़ोन पर रोइ। मैं उसके अश्रु नही देख सकता था इसलिए फ़ोन काट दिया। मैं सिहर कर रह गया।

यू तो मेरी जिंदगी में बहुत सी महिलाएं आई और गई भी पर उस 23 साल की लड़की का अदम्य साहस, दुनिया की भीड़ से लड़ने की क्षमता, और कुछ कर गुजरने का जज्बा ये 3 बाते थी जो मैं कभी नही भूल पाया।

वो दिन मुझे आज भी याद है जब उसने सारी विषमताओं को तोड़ते हुवे अपने ‘नायक’ पिताजी को कंधा दिया। दुनियां राग अलपती रही, दुहाई देती रही पर उसने एक न सुनी। वो दिन था जब उसने मुझे बहुत याद किया, आंसुओ की धार में फरियाद किया पर मैं वहां नही था। होता भी कैसे मैं कभी उसके अंदर नही उत्तर पाया और न कभी उतरने की कोशिश की।

पिता के देहांत के बाद मां की तबियत और खराब हो गई, भाई किसी के साथ अवैध संबंध में था तो उसे किसी चीज़ की परवाह नही थी। घर का किराया, राशन-पानी और बहन की जरूरते।

उसने अपनी सारी जवानी इसी मद्द में गुजार दी। चीज़े और मुश्किल हो गई जब भाई-बहनों ने उसके किये कार्य को त्याग न मानकर उसका कर्तव्य कहकर संबोधित किया।

नीवं के ईंट की कोई कीमत नही होती। क्योंकि उससे हम शो-पीस की तरह इस्तेमाल नही कर सकतें। वो थी नीव की ईंट माया। उसने वो सबकुछ किया जो एक बडा बेटा करता है।

बेटे के दर्द पर मां मरहम लगाती है पर उसका दर्द उसके आंखों में कैद होकर रह गया। न जाने उसने कितने ऑफिस के चक्कर काटे और कितने लोगो से बात की पर आजीविका के वजाए उसे आश्वासन मिला।

दिन दिन भर नौकरी की खोज करती जो पिता की मौत के बाद छुट गई थी और रात को आंखे जला जला कर पढ़ती। उसने निश्चय किया था की वो अपनी बहन और माँ को बेसहारा नही होने देगी।

धन्य हो ऐसे माता-पिता जिसे ऐसी संतान होती है। एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसे किराए का घर छोड़ने की नौबत आन पड़ी। पर उसने हार नही माना किसी गैस एजेंसी में मामूली टाइपिस्ट की नौकरी कर ली।

12 घंटे मसक्कत के बाद उसे 10 हजार मिलते थे। 4 परिवार और किराये का मकान। गुडगाँव जैसे शहर में इतने कम पैसों में जीना लोहे के चने चबाने के सामान है। मेरी आखिरी मुलाकात उससे तब हुई जब मैं मार्कशीट लेने कॉलेज गया। 

पिछले 2 साल से मैं उसके कांटेक्ट में नही था। एक दिन किसी काम से मुझे गुड़गाव डी०सी आफिस जाना पड़ा। मुझे किसी वरिष्ठ अधिकारी से मिलना था। मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था।

‘साहिल कश्यप ‘ नाम पुकारा गया ,मैं जैसे ही अंदर गया मेरे कदम ठहर गए। क्रीम कलर की बॉर्डर वाली साड़ी और माथे पर छोटी बिंदी लगाए एक औरत किसी से फ़ोन पर मुस्कुरा के बात कर रही थी, उसने जैसे मुझे देखा, खड़ी हो गई।

मेरी नज़रें उसकी नज़रों से बच नही पाई। मैं बड़ा शंर्मिन्दगी मसहूस कर रहा था। वापस भी नही जा सकता था। वो माया थी। उसने कहा साहिल तुम! कैसे यहां, 2 साल हो गए , तुमने मुझे याद तक नही किया।

क्यो? कहाँ थे, और क्यो नही किया याद? सवालों की बौछार हो गई। शायद कुछ पल के लिए वो भूल गई थी कि वो टैक्स कलेक्टर के पद पर तैनात है।

उसके उत्साह का मैंने ऐसा जवाब नही दिया जैसी उसने अपेक्षा की होगी। बातो को काटते हुवे मैंने उसे वहाँ आने का कारण बताया। मिनटों में मेरा काम हो गया।

हल्की फुल्की बात-चीत के पश्चात उसने मुझे रुकने के लिए कहा। आज भी  वो वही लग रही थी एकदम सरल। वही तेज और वही मासूमियत। उसने घर आने का न्योता दिया। जिसपर मैं न नही कर पाया।

मैं हैरान था कि कोई कैसे इतनी मुसीबत झेल कर ऐसे उच्च पद पर पहुँच सकता है। पर वो माया थी जिसने कर दिखाया। बहन की शादी हो गई थी, भाई का घर बस गया था।

पर आज भी वो किसी वीर योद्धा की तरह मैदान में डट कर खड़ी थी। पहली बार खुद का  पुरूष होने का दम्भ टूट गया। मैं विचारों के उधेड़ बुन में उलझा हुआ वहाँ से निकला और सरपट दौड़ती बस में चढ़ कर घर को चला गया। 

फिर कभी हिम्मत नही हुई कि उसकी तरफ देखू। उसकी तरफ देखना मतलब एक अपराध बोध की तरफ खुद को देखना। मेरे जैसे पुरुष न जाने कितनी माया को अकेला छोड़ देते है?

आज हर घर मे एक माया है, कभी वो वो दम तोड़ देती है तो कभी निखर जाती है। इस माया ने मेरे अंदर ऐसे विचारो का बीज जो आज तक अंकुरित हो रहे है।

ये कहानी किसी के करोड़पति या आईएएस बनने की नही है ये कहानी है उस भारत के बेटी की जो न जाने कितनी माया को कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित  करती है।

माया की कही मुझे एक बात आज तक याद है जब उसने कहा “साहिल जितनी ख़ुशी तुम्हे एक पुरुष पर नही होगी उससे कही ज्यादा मुझे एक महिला होने पर गर्व है… उसने इसे साबित भी किया बिना किसी पुरुष के मदद से।

(इस कहनी के सभी पात्र काल्पनिक है ,इसका किसी भी घटना से कोई संबंध नही है ,अगर किसी से समानता होती है तो मात्र इसे संयोग कहा जायेगा ।)

ये थी Motivational Stories in Hindi से दो प्रेरणादायक कहानियाँ। आशा करता हूँ आपको इन कहानियों से कुछ प्रेरणा मिली होगी।

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